लवी मेला और उसका ऐतिहासिक महत्त्व

अंतराष्ट्रीय लवी मेला रामपुर

हिमाचल प्रदेश के शिमला में रामपुर सतलुज के किनारे समुद्र तल से 924 मीटर की ऊंचाई पर बसा एक सुंदर पर्वतीय स्थान है। हिमालय के आन्तरिक क्षेत्र में मनाया जाने वाला लवी एक ऐतिहासिक व्यापारिक मेला है। अंतराष्ट्रीय लवी मेला पुरातन इतिहास, परंपरा और संस्कृति का प्रतीक है। यह मेला प्रदेश की राजधानी शिमला से 130 किलोमीटर दूर रामपुर बुशैहर में प्रतिवर्ष 25 कार्तिक 11 नवम्बर से लगातार 4 दिन तक मनाया जाता है। बुशैहर रियासत राजा प्रद्युम्न द्वारा स्थापित की गयी थी। प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र में पुरातन समय से विदेशों से व्यापार की परंपरा बहुत पुरानी रही है। कुल्लू दशहरा और रामपुर लवी मेला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इन मेलों से लोग साल भर के लिए आर्थिक संसाधनों का विकास करते थे और अपने साल भर की आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी कर लिया करते थे। अत्याधिक शीत और हिमपात के कारण जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे अवसरों पर ही जरूरी वस्तुएं खरीद कर रख ली जाती थीं, जिससे साल भर गुजारा किया जाता था। व्यापार मेले में कर मुक्त व्यापार होता था। लवी मेले में किन्नौर, लाहौल-स्पीति, कुल्लू और प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से व्यापारी पैदल पहुंचते थे। वे विशेष रूप से ड्राई फ्रूट, ऊन, पशम और भेड़-बकरियों सहित घोड़ों को लेकर यहां आते थे। बदले में व्यापारी रामपुर से नमक, गुड़ और अन्य राशन लेकर लेकर जाते थे। लवी मेले में चामुर्थी घोड़ों का भी कारोबार के लिए भी जाना जाता रहा है। ये घोड़े उत्तराखंड से लाए जाते थे।

तिब्बत की संधि से जुड़ा है लवी मेले का इतिहास

लवी मेले का इतिहास बुशैहर रियासत के प्रसिद्ध शासक केहरि सिंह से जुड़ता है। वे इस रियासत के 113वें शासक थे और उन्होंने 1639 ई0 से 1696 ई0 तक यहां शासन किया। ये बहुत ही शक्तिशाली शासक हुए इन्होंने अपने शासनकाल में कुमारसेन, कोटगढ़, बालसन, ठियोग और दरकोटी जैसी छोटी-छोटी रियासतों को जीतकर इन पर अपना अधिपत्य स्थापित किया। केहरि सिंह ने बड़ी रियासतों में मंडी, सुकेत और गढ़वाल रियासतों पर भी अपना अधिपत्य स्थापित किया। इसके बाद मुगल शासक औरंगजेब के राज्यों में भी अपना प्रभुत्व स्थापित किया। राजा केहरि सिंह की बहादुरी के कारण बाद में उनको छत्रपति की उपाधि भी प्रदान की गयी। दक्षिण की रियासतों के साथ मेल-जोल बढ़ाने के उपरान्त राजा केहरि सिंह ने अपना सैन्य अभियान तिब्बत की ओर प्रारम्भ किया। इस अभियान के लिए स्थानीय शासक उनका साथ देने को तैयार नहीं थे। इसलिए उन्होंने सन् 1681 ई0 में अपनी एक बहुत बड़ी सेना को असैनिकों के वेश में तैयार करके तिब्बत की ओर कूच किया और इस प्रकार नाटक किया मानो वे तीर्थयात्रा के लिए कैलाश के मानसरोवर जा रहे हों। इसी समय तिब्बत एवं लद्दाख में सीमा-विवाद चला हुआ था जोकि 1681 ई0 से 1683 ई0 में एक युद्ध में परिवर्तित हो गया। 1681 ई0 में दोनों देशों में होने वाले इस युद्ध में तिब्बत की सेना का नेतृत्व जनरल गाल्दन त्सेवांग कर रहे थे। राजा केहरि सिंह इस समय अपने सैनिकों सहित एक तीर्थ यात्री के रूप में मानसरोवर में ठहरे हुए थे। तिब्बत जनरल ने उनसे सहायता करने का अनुरोध किया। बुशैहर के राजा ने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया। इस दौरान दोनों शासकांे के बीच में एक समझौता हुआ जिसमें यह निश्चित हुआ कि दोनों शासकों के बीच मित्रता बनी रहेगी। दोनों देशों के व्यापारियों को एक दूसरे के देश में माल लाने की सुविधा बिना किसी अतिरिक्त कर अदा करने से होगी। इस सन्धि को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए तिब्बत नरेश की ओर से बुशैहर नरेश को घोड़े तथा बुशैहर नरेश की ओर से तिब्बत नरेश को तलवारों का आदान-प्रदान हुआ। इस सन्धि के बाद से ही दोनों देशों में व्यापार होने लगा और लवी मेला कामरू या सराहन में मनाया जाने लगा। इन दिनों रामपुर बुशैहर का कोई नामो निशान नहीं था। दोनों नरेशों के बीच हुए समझौते पर प्रोफेसर एल. पैच ने अपनी किताब ‘‘इंडियन हिस्टोरिकल क्वालिटी’’ के वाॅल्युम 23 में अपने एक लेख में बड़े ही रोचक ढंग से लिखा है कि तिब्बत एवं लद्दाख के बीच होने वाले युद्ध के साथ ही तिब्बत एवं बुशैहर के नरेशों के बीच समझौता हुआ तथा दोनों ने एक दूसरे के दूत भेजने स्वीकार कर दिये। 1684ई0 में दोनों देशों के नरेशों के मध्य तिंगगोस गांेड में एक अन्य समझौता हुआ जिसके अनुसार तिब्बत के शासक पांचवें दलाईलामा ने राजा केहरी सिंह को उपरी किन्नौर का क्षेत्र दे दिया जोकि तिब्बत ने लद्दाख से छीना था। यह उस समय का समकालीन लेख डाॅ0 ए0एच0 फ्रैंक को उस समय मिला जब वे सन् 1906 ई0 में एतिहासिक इतिवृत की खोज में किन्नौर, स्पीति एवं लद्दाख की ओर निकले थे तथा नमगिया के निकट शिपकी में ठहरे हुए थे। वहां एक हीरा नाम व्यक्ति से मिले जिसके पूर्वज तिब्बत से आये थे तथा नमगिया में स्थाई रूप से बसे हुए थे। इस समकालीन लेख के बारे में डाॅ0 फै्रंक ने भी अपनी डायरी में वर्णन किया है। सराहन से जैसे ही रियासत की राजधानी रामपुर लाई गयी तो लवी मेला यहीं पर मनाया जाने लगा। इस मेले के इस अवसर पर चीन से चाय, मारकण्ड से चांदी के कटोरे, रूस से खिलौने यहां बेचने के लिए लाये जाते थे। उनींसवीं शताब्दी में लिपस्टिक, कप, मर्तबान, तथा मंहगे सिल्क के कपड़े यहां बिकने को आते थे। चीन द्वारा तिब्बत हथियाने से किन्नौर के लोग विशेषतः नुकवा, शुआ, वलखर वासी तिब्बत से व्यापार करते थे। तिब्बत और लद्दाख के साथ इनका मुक्त व्यापार होता था। इस व्यापार से बुशैहर रियासत को बहुत लाभ होता था। तिब्बत के व्यापारी उन, पशम, नमक आदि लाकर इस मेले में बेचते थे। शहद, घी, दूध, अखरोट, अंगूर, याक की मूंछें आदि लाकर इस मेले की व्यापारिक वस्तुएं हुआ करती थी। सन् 1810 ई0 से 1815 ई0 के मध्य जब गोरखों ने बुशैहर रियासत में आतंक मचाया तो इस मेले को धक्का लगा। इसके बाद मेले को पहले की तरह मनाया जाने लगा। इस मेले के बारे में अनेक कथन स्थानीय स्तर पर उपलब्ध होते हैं जोकि इसके महत्व को प्रदर्शित करते हैं।

एक उक्ति के अनुसार:-

‘‘आगे खोपड़ी पाछे पीपटी गांव मांझे राईपुरा बजारा

आगे………………………………………

खोड़ शांगटी उन भेड़ा बाकरी होआ बापारा’’।

अर्थात् इस नगर के एक ओर खोपड़ी तथा दूसरी ओर पिपटी गांव और नगर के मध्य रामपुर बुशैहर का प्रसिद्ध बाजार है। लवी के इस मेले में अखरोट, चिलगोजा, उन, भेड़ और बकरियों आदि का व्यापार होता है।

रियास्त के समय में यह मेला राजा के द्वारा आयोजित किया जाता था जबकि वर्तमान समय में इसका आयोजन मेला कमेटी द्वारा किया जाता है। इस शताब्दी के मध्य 50 वर्षाें तक यह मेला अंतराष्ट्रीय मेला हुआ करता था तथा यहां तिब्बत, लद्दाख, अफगानिस्तान और समरकोट से व्यापारी आते थे लेकिन अब ये व्यापारी लवी मेले में नहीं दिखाई देते। इनका स्थान मैदानी व्यापारियों ने ले लिया है। मेले का महत्व अब कुछ कम हुआ है अब मेले में आधुनिकता अधिक होने के कारण अब परम्परागत चीजांे का महत्व घटा है। ऐसे में मेले के प्राचीन और वास्तविक स्वरूप को बचाने के लिए प्रयास चल रहे हैं।

अंतराष्ट्रीय लवी मेले की मौजूदा स्थिति

यह मेला 11 नवंबर से 14 नवंबर तक मनाया जाता है। वर्तमान में इस मेले को राजस्व राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा प्राप्त है। कुछ वर्ष पहले तक यह मेला रामपुर बाजार के साथ-साथ लगता था, लेकिन मेले के आयोजन के लिए बाजार से आगे मेला ग्राउंड बना दिया गया है। जहां विभिन्न विभागों की विकास सदस्यों के साथ मेले के लिए अलग-अलग बाजार बनाए जाते हैं. जिसका पुरातन स्वरूप भी देखा जा सकता है। किन्नौर से आने वाले व्यापारी पूरे लवी मेले के दौरान रामपुर में ही अपना डेरा जमा लेते हैं। किन्नौरी सभ्यता की पट्टू-कोट की पटियां, बदाम, चिलगोजा, खुरमानियां, शिलाजीत और कई वस्तुएं किन्नौर के व्यापारी मेले के दौरान बेचते हैं। स्पीति, कुल्लू और शिमला के भीतरी भागों से व्यापारी अपना परंपरागत समान लेकर उत्साह से मेले में भाग लेते हैं।

लवी मेले से जीवित रहा ग्रामीण पारम्परिक हथकरघा व्यवसाय, खुल रहे नये रोजगार के अवसर  

उत्तर भारत का यह प्रमुख व्यापारिक मेला ग्रामीण दस्तकारों के रोजगार और आर्थिक मजबूती का केंद्र बना है। अंतर्राष्ट्रीय लवी मेला का योगदान हथकरघा व्यवसाय को जीवित रखने में बहुत महत्वपूर्ण है। अंतराष्ट्रीय लवी मेले के कारण ग्रामीण दस्तकारों की साल भर की रोजी चलती रही है। ग्रामीण दूर दराज क्षेत्र के बुनकरों का अंतर्राष्ट्रीय लवी मेला आर्थिक और रोजगार का प्रमुख साधन बना हैं। मेले के दौरान हस्तनिर्मित वस्त्रों, शॉल, पट्टू, पट्टी, टोपी, मफलर, खारचे आदि की मांग बढ़ जाती है। हर ग्रामीण दस्तकार की कोशिश रहती है कि 11 नवंबर से शुरू होने वाले अंतर्राष्ट्रीय लवी मेले में अधिक सामान एवं वस्त्र तैयार कर ले जाएं, ताकि वह मेले में अच्छा पैसा कमाया जा सके। ऐसे में ग्रामीण दस्तकारी को बढ़ावा देने में अंतर्राष्ट्रीय लवी मेला ग्रामीण परम्परागत उत्पादों के लिए ग्राहक उपलब्ध करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

मेले में किन्नौर क्षेत्र का योगदान

लवी व्यापारिक मेले में किन्नौर क्षेत्र का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहां से आने वाली समस्त व्यापारिक वस्तुओं को किन्नौरी मण्डी में सजाकर विक्रय किया जाता है। प्राचीनकाल से ही किन्नौर के लोगों के लोगों का पशुपालन प्रमुख व्यवसाय रहा है। ये लोग अपने पशुओं का व्यापार आज भी इस मेले में करते हंै। ये लोग मेला प्रारम्भ होने से एक सप्ताह पूर्व रामपुर नगर आ जाते हैं। यहां पूह उपमण्डल में नेवजा के पेड़ होते हैं जोकि प्रतिवर्ष हजारों क्विंटल की मात्रा में निकलता है। इस मेले में नेवजे का व्यापार एक प्रमुख आकर्षण होता है। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में गर्म वस्त्र, पट्टू, पट्टी, जीरा, सुखी खुरमानी व सूखे मेवे बड़ी मात्रा में लाये जाते हैं। भेड़ बकरियां व उनी वस्त्र तराण्डा, भाभा, सांगला तथा रिब्बा आदि स्थानों से यहां लाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त पूह क्षेत्र से यहां अच्छे वर्ग के घोड़े बेचने को लाये जाते हैं। किन्नौर क्षेत्र में शक्तिदायक शिलाजीत भी उंचे पत्थर की चट्टानों की कन्दराओं में भारी मात्रा में उपलब्ध होती है जिसे कि शोध कर विक्रय के लिए यहां लाया जाता है।

अन्य स्थानों से भी आते हैं व्यापारी

लवी मेले में सुन्नी-भज्जी, सिरमौर व अर्की आदि स्थानों से व्यापारी अपनी वस्तुओं को यहां लाकर बेचते हैं। वे अदरक और मिर्चे बेचने को इस मेले में लाते हैं तथा यहां से शालें एवं अन्य हस्त निर्मित वस्तुएं ले जाते हैं। रोहड़ू की ओर से व्यापारी चावल, भेड़े व बकरियां यहां बेचने लाते हैं तथा ये जिला कुल्लू के बाहरी सिराज के व्यापारियों के साथ ब्रौ में अथवा मेले में व्यापार करते हैं।

लवी मेले में अन्य प्रदेशों से भी आते हैं व्यापारी

हिमाचल प्रदेश के अतिरिक्त पंजाब, हरियाणा, उतरप्रदेश, दिल्ली, चण्डीगढ़, जम्मू कश्मीर, मध्यप्रदेश और राजस्थान आदि राज्यों से भी यहां व्यापारी आते हैं तथा मशीनों में निर्मित वस्तुओं को बेचते हैं। इससे न कि केवल व्यापारियों को लाभ होता है, अपितु लोगों को अपनी आवश्यकता की वस्तुएं उपलब्ध होने के साथ-2 राज्य सरकार की आय में भी वृद्धि होती है। इस मेले में सरकारी विभागों की ओर से भी प्रर्दशनियां लगाई जाती है। दिन के समय लोग आवश्यकता की वस्तुओं का क्रय-विक्रय करते हैं तथा रात को सांस्कृतिक कार्यक्रमों को देखकर अपनी दिनभर की थकान दूर करते हैं जिसमें कि प्रदेश एवं देशभर के कलाकार भाग लेते हैं।

मेले की संस्कृति को सहेजने की है आवश्यकता

लवी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं व्यापारिक मेला है, लेकिन इसका महत्व पहले की अपेक्षा दिन प्रतिदिन घटा है। लवी मेला को रामपुर की पर्वतीय संस्कृति का संगम बनाये जाने की आवश्यकता है। । ग्रामीण लघुउद्योगों के लगातार उजड़ते चले जाने के कारण और भी विकट होती जा रही है। ग्रामीण सुख-समृद्धि का आधार होता है-कुटीर उद्योग। परन्तु भारी उद्योगों के विकास के कारण लघु उद्योगों को आघात पहुंचा है और इनको चैपट कर दिया है। पहले यहां इस मेले में हस्त निर्मित वस्तुएं लाई जाती थी वहीं पर आज मशीनों में निर्मित वस्तुएं आती है। ऐतिहासिक एवं व्यापारिक मेले में हस्त शिल्प निर्मित वस्तुएं नहीं आयेंगी, तो लोग यहां क्या करने आयेंगे। चाट के चटखारे, जलेबी का स्वाद से मेले को जीवित रखना उचित नहीं है। इस मेले में सांस्कृतिक, व्यापारिक और आधुनिक पक्षों का समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए। इससे प्रदेश की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को नवीन अर्थ प्राप्त होंगे। आधुनिक समय में प्राचीन परम्परागत जीवन शैली की उत्कृष्ट वस्तुओं के उपयोग से लाभान्वित होने का मौका मिलेगा। इसके साथ ही यहां विलुप्त होने की कगार पर पहंुच रही हथकरघा और प्राचीन कलाओं को विश्वस्तरीय बाजार उपलब्ध होगा। जिससे यहां रोजगार की नयी संभावनाओं का जन्म भी होगा और संस्कृति का परिरक्षण भी।

सामग्री बनाने के लिए प्रयुक्त संदर्भ ग्रंथ-

1.   History of Himachal Pradesh delhi Main G.S

2.   Punjab states Gazetteer, Shimla Hill states- Bushahr Lahore 1911, p.6

3.   Ram Rahul. The Himalaya Border  Land, Delhi 1969, page-103.

4.   Patch. L, Indian Historical Quality, Vol. xxiii, September

5.    Richerdson, H.E., Tibet and its History, London 1962, Page- 245, 246

6.   Fisher Margaret, W, Himalayan Battle ground, London 1963, page- 39

7.   Francke, A,H., Antiquaities of Western Tibet, Culcutta 1914, Vol, I.page- 24

8.   Franch, I.C. Himalayan Art O.U.P., 1931

9.   Panjab states Gazetteer, shimla hill states-Bushahr, Lahore page-61

10.                   Panjab Government  records, Lahore 1911, vol. I, page- 202

11.                   Punjab Government records, Lahore 1911, Vol I P. 286-87

12.                   Thakur  Hardyal Singh, Then and now, 1980, Page-23

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