हर वर्ष की भांति इस साल भी करवा चौथ को लेकर लोगों में भारी उत्साह है। बाजार परम्परागत ढंग से लेकर आधुनिक हो चुके इस व्रत का कोई भी व्यवसायिक लाभ नहीं छोड़ना चाहता। खानपान वेशभूषा से लेकर साज सज्जा तक हर ओर भावना और बाजारवाद का समन्वित रूप देखने को मिल रहा है। प्राचीन कर्क चतुर्थी से लेकर आज के करवा चौथ के रूप में स्थापित और बहु प्रसिद्ध हो चुके इस पर्व में बहुत अंतर आ चुका है। 90 के दशक के बाद करवा चौथ व्रत अब अपने प्रचंड व्यवसायिक चकाचौध सराबोर हो चुका है।
सादगी और आस्था से मनाया जाता रहा यह पर्व
भारतीय सनातन संस्कृति में यह पर्व सादगी और आस्था को केंद्र में रखकर मनाया जाता रहा है। प्राचीन ग्रंथो में भगवान गणपति की आराधना को विद्या बुद्धि और धन धान्य की संपन्नता के लिए किया जाता है। महीने में दो बार चतुर्थी के दिन भगवान श्री गणेश जी की प्रसन्नता के लिए व्रत किया जाता है। कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को कर्क चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है। यह व्रत अपने जीवन साथी की आयु और अभ्युदय के लिए किया जाता है।
भारतीय परंपरा में इस प्रकार मनाया जाता है यह पर्व
भारतीय परंपरा में प्रात: काल उठकर स्नान करके साफ वस्त्र धारण किए जाते हैं। इसके बात रंगोली से गणपति अष्टदल कमल लिखकर अष्ट शक्तियों के साथ भगवान गणेश की स्थापना की जाती है। षोडशोपचार से पूजन करके गणपति का दूर्वा से पूजन किया जाता है। रात्रि में भगवान गणपति का पूजन करके और चंद्र देव की सपत्नीक पूजा करके और चंद्र दर्शन के बाद व्रत पूरा किया जाता था।
ये जुड़ी है व्रत में नई मान्यताएं
संस्कृतविद पूर्ण प्रकाश शर्मा का कहना है कि भारत में समन्वित संस्कृति का असर इस व्रत पर भी पड़ा। सुबह के समय सरगी खाकर व्रत की परंपरा मूल भारतीय परंपरा नहीं रही है यह मुस्लिम धर्म की रोजा की परम्परा से आया है। छलनी से पति का चेहरा देखने का कोई प्रमाणिक शास्त्रीय भारतीय आधार नहीं है। यह प्रांतों की अंतर संस्कृति से प्रभावित होकर एक परंपरा मात्र है। इसी प्रकार करवा लेकर उसको अनाज इत्यादि से भरना इत्यादि से सब भारतीय मूल शास्त्रीय सिद्धांत न होकर काल क्रम में विकसित परंपरा मात्र है।
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