जनरल जोरावर सिंह जिसकी बहादुरी के दुश्मन भी थे कायल

वृत से प्राप्त  भू-राजस्व रिकाॅर्ड के कुर्सीनामा से मेल खाता है। नरसिंह दास द्वारा अपनी पुस्तक में उस भू-राजस्व रिकाॅर्ड वंशावली दर्शायी है। अतः इस आधार पर कहा जा सकता है कि जोरावर सिंह का पैतृक गांव अन्सरा तह. नादौन जिला हमीरपुर था। जोरावर सिंह का जन्म हिमाचल प्रदेष के जिला हमीरपुर, तहसील नादौन के अन्तरा गांव में 13 अप्रैल 1786 में हुआ था। 16 वर्ष की आयु में वे घर से रोजगार की तलाश में निकल पड़े। वहां पर 1803-04 ई. में वह महाराजा रणजीत सिंह की सेना में भर्ती हो गये। यहां पर किसी बात को लेकर सैनिक टुकड़ी के नायक से झगड़ा हो गया व उसकी हत्या कर दी। इसके बाद वह रणजीत सिंह की सेना को छोड़कर कांगड़ा के शासक महाराज संसार चंद की सेना में भर्ती हो गये। गोरखों के खिलाफ महाराजा संसार चंद की सहायता के लिए जब संसार चंद की सहायता के लिए जब लाहौर का शासक महाराज रणजीत सिंह व उसकी सेना कांगड़ा पहुंची तो सिक्ख सैनिकों ने उसको पहचान लिया। अतः वह जम्मू की ओर आये। जम्मू में धौंधलीं ढक्की में उनकी महाराजा गुलाब सिंह से उनकी मुलाकात हुई। जोरावर सिंह में वीरता के गुण बचपन से कूट-कूट कर भरे थे। वे राजा गुलाब सिंह की सेना में सामान्य सिपाही के तौर पर नियुक्त हुए थे। इनकी योग्यता और बहादुरी के दम पर इन्हें राशन वितरण अधीक्षक बनाया गया। उनको अब कर निर्धारण करने, स्वतंत्रतापूर्वक सेना का गठन करने व इर्द-गिर्द की रियासतों को विजय करने की स्वतंत्रता दे दी गयी। इसके बाद जोरावर सिंह रियासी किलेदार बने। महाराज गुलाब सिंह उनके व्यक्तित्व और गुणों से बहुत प्रभावित हुए और 1821 में उन्हें किश्तवाड़ का गवर्नर बनाया गया। तत्पश्चात 1820 ई. में जोरावर सिंह को बजीर की उपाधि दी गयी और वे सेना के प्रशिक्षण कार्य में लग गये।

ब्यास नदी में लगाई छलांग

जिस समय जोरावर का जन्म हुआ, तो पंडित गंगाराम ने इस बालक की जन्म कुंडली बनाकर जांची, तो उसने ये भविष्यवाणी की थी कि यह बालक बड़ा होकर अपनी जन्म भूमि से दूर जाकर अपनी बहादुरी से अमरयश मान प्राप्त करेगा। जिस समय सिक्ख सैनिक जोरावर सिंह को बेडियों में जकड़ कर लाहौर की ओर जा रहे थे, तो देहरा गोपीपुर में उनका रात पड़ गई। सैनिकों ने वहीं पर ब्यास नदी के पत्तन पर रात काटने की योजना बनाई। रात्रि को जोरावर सिंह ने लघुशंका का बहाना बनाकर ब्यास नदी की तेज धारा में छलांग लगा दी और तैरता हुआ बहुत दूर निकल कर हरिपुर गुलेर के निकट किनारे लगा। वहां एक घराट में जा कर घराटी से अपनी सारी व्यथा-कथ सुना डाली। घराटी को इस पहाड़ी युवक पर दया आ गई, उसने रात को ही गांव के लोहार को बुलाया और जोरावर की लोहे की बेड़ियां कटवाकर उसे बंधन मुक्त कर दिया।

पास बर्फ का पुल बनाया। महता बस्ती राम सहित 40 आदमियों ने पुल को पार किया व बल्टि सेना को पीछे हटने को मजबूर किया। अब डोगरा सेना ने नदी को पार कर लिया। 13 फरवरी 1840 ई. को थामो खोन नामक स्थान निर्णायक यु़द्ध में बल्टि सेनापति बजीर गुलाम हुसैन मारा गया व सेना बुरी तरह से पराजित हुई। अब जोरावर सिंह स्कर्दु  की ओर बढ़ा। कुर्रस के राजा ने अधीनता स्वीकार कर ली व स्कर्दु के किले को अपने अधीन कर लिया। थोमो खोन व स्कर्दु की विजय से सारा बल्टिस्तान जोरावर सिंह के अधीन हो गया। स्कर्दु के राजा अहमदशाह को गद्दी से उतार कर उसके बेटे मुहम्मद शाह को राजा बनाया। उसने 7000 रू वार्षिक कर देना स्वीकार किया। जोरावर सिंह अब वापिस लद्दाख की ओर बढ़ा। रास्ते में डोगरा सेना में चेचक फैल गया जिसके कारण बहुत सारे सैनिक मारे गये व बूढ़ा ग्यालपो भी स्वर्ग सिधार गया। जब जोरावर सिंह ने ग्यालपो के पोते जिगस्मद को लद्दाख का शासक नियुक्त किया।  जोरावर सिंह ने अदम्य साहस वीरता व पराक्रम से पश्चिमी तिब्बत को विजित करके जम्मू राज्य की सीमाएं नेपाल की सीमा के साथ मिला दी थी। कैलाश पर्वत व मानसरोवर झील उनके अधीन हो गए थे। आज भारत की सीमाएं सुदूर हिमालय पर्वत तक फैली हुई है तो इसका श्रेय जनरल जोरावर सिंह को ही जाता है। यदि उन्होंने लद्दाख व बाल्टिस्तान को जीतकर जम्मू राज्य का अंग न बनाया होता तो यह भू-क्षेत्र अब भारत का अभिन्न अंग न होता। जनरल जोरावर सिंह ने लद्दाख के युद्ध को करते समय भेड़ की खाल को पहना हुआ था। तिब्बत के तोया युद्ध में इनके अदम्य साहस को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। 12 दिसम्बर 1841 को इस युद्ध में इन्होंने अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया और वीर गति को प्राप्त हुए। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि युद्ध ही वीरता की सच्ची परीक्षा है।

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