गुग्गापीर के बारे मंे ऐतिहासिक जानकारी

किसी भी देश की संस्कृति में लोक परम्परा, लोक-विष्वास, का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। गुग्गा और उससे जुड़ी किंवदंतियां हिमाचल सहित अनेक उतरी भारतीय राज्यों में अपना महत्व रखती है। लाल श्रीवास्तव का मानना है कि ‘लोक में किसी क्षेत्र के ग्रामीण, शहरी या उन सभी लोगों को ष्शामिल किया जाता है जो एक आम सांस्कृतिक-विरासत के प्रति जागरूक होते हैं। उनका जो व्यवहारिक ज्ञान लिखित शास्त्रों की अपेक्षा मौखिक परम्परा पर आधारित होता है। गुग्गा एक ओर सर्पों से रक्षा करता है दूसरी ओर संतान देने वाला माना गया है। यदि इनकी पूजा की जाती है ये उपासकों को लाभ पहुंचाते हैं यदि अनदेखी करते हैं तो नुकसान झेलना पड़ता है। कर्नल टॉड पहले ऐसे लेखक रहे हैं जिन्होंने 1829 में गुग्गा को चौहान राजपूत एवं योद्धा के रूप में मान्यता दी। एक अन्य लेखक टैम्पल ने ‘द लिजैण्डस ऑफ पंजाब, में गुग्गा को राज्यस्थान के बीकानेर का राजपूत माना था। गुग्गा ने महमूद गजनवी से युद्ध करते हुए अपने राज्य की रक्षा की थी। कनिघंम ने ‘आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया’ में लिखा है कि गुग्गा एक राजपूत योद्धा था। जिसकी पूजा वीर के रूप में की जाती है। कैप्टन एच0 भीमपाल के अनुसार गुग्गा चौहान 695 ई0 में गद्दी पर बैठा तथा अपने 45 पुत्रों के साथ गउओं की रक्षा करते हुए मारा गया। सोहन लाल चारण राज्यस्थानी लोक साहित्य में गुग्गा चौहान ददरेड़ा का निवासी जेवर तथा बाछल का पुत्र था। महत्वपूर्ण बात यह है गुग्गा की पूजा हिन्दु और मुस्लमान दोनो करते हैं। 13 मार्च 1959 के समाचार पत्र सैनिक, ने ‘हिन्दु मन्दिर में मुस्लिम पुजारी’ नाम से शीर्षक देते हुए लिखा है – राजस्थान के सूरतगढ़ के निकट हिन्दु मंदिर पुजारी मुसलमान परिवार है, जो देवता की पूजा करते हैं। ऐसा कई सदियों से हो रहा हैं, यह मंदिर गोगा माढ़ी में है, जहां गोगा की मूर्ति है, जो अब एक राजपूत संत हो चुका है। गुग्गा की पूजा का उल्लेख बडे पैमाने पर उतर-पष्चिम भारत में मिलता है। प्रसिद्ध पंजाबी लेखक भाई वीर सिंह ने 1898 में उपन्यास सुन्दरी मंे पंजाब की सिक्ख महिलाओं द्वारा गुग्गा पूजा की कड़ी आलोचना भी की। हिमाचल में गुग्गा का स्थान मूल देवता के रूप में नहीं है क्योंिक इसका जन्म भी राजस्थान का मारू देष ही माना जाता है। यदि गुग्गा पूजा की मान्यता की बात करें तो यहां पर दलितों में इस देवता के प्रति अगाध श्रद्धा, विष्वास और मान्यता मिलती है। हिमाचल के लेखकों ओमचंद हाण्डा, देवराज शर्मा, नरेंद्र अरूण आदि लेखकों ने गुग्गा परम्परा की षुरूआत 17वीं षताब्दी से मानी है । अनेकों षोध और सर्वेक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि हिमाचल के विभिन्न स्थानों में कुछ माढ़ियां हैं जिनकी स्थापना समय-समय पर हुई। बिलासपुर में गुग्गा भटेड़, गेहड़वीं व भ्याणपीर, कांगड़ा में षिब्बो द थान, सलोह व कुटियारे-द-गुग्गा, उना में कडप व चकसराय, हमीरपुर में गुग्गा लड़ा-ग्लोड़, सोलन में नालागढ़ व स्पाटू तथा सिरमौर में नाहन व षिलाई आदि ष्षामिल हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इन सभी माढ़ियांे की स्थापना दलितों ने की।

जन्म

एक किंवदंति के अनुसार गुग्गा का जन्म ग्यारहवीं ष्षताब्दी के दौरान हुआ प्रतीत होता है। गुग्गा का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोरखनाथ ने ददरेवा की रानी बाछल को वरदान देते हुए बालक के आगे जाकर चमत्कारी होने की बात की थी। सत्येेद्र नामक लेखक ने लिखा है कि ग    ुग्गा का जन्म गुरू गोरखनाथ द्वारा दिए गये गुगल फल के कारण भादो मास की नवमी में हुआ था। राजस्थान के राजपूताना में प्रचलित लोक विष्वास के अनुसार गुग्गा और उसके घोड़े का जन्म गोरखनाथ द्वारा दिये वरदान स्वरूप् दिए गये दो जौ के दाने से हुआ था। इसी कारण उनके घोड़े का नाम जवादिया पड़ा। यहां पर इस घोड़े को नीला नाम से भी जाना जाता है।

गुग्गा धरती माता की परिक्रमा करके माता के पास पहंुचता है और प्रणाम करता है। ऐसा माना जाता है धरती गुग्गा को धर्म परिवर्तन के लिए कहती है। इस तथ्य की पुष्टि ब्रिग्ज ने अपनी पुस्तक मंे की है।

धरती माता ने गुग्गा को कहा कि हिन्दु होने के नाते तुझे स्थान नहीं दे सकती। यदि वह मुसलमान बन जाये तो अपने गर्भ में स्थान दे सकती है। गुग्गा ने यह सुनकर अपना रास्ता बदला और मक्का मदीना पहुंचकर रत्न हाजि को मिला। गुग्गा ने हाजी से कल मा की अढ़ाई कल्में पढ़ी तथा धर्म परिवर्तन करके वापिस आ गया। वापिस आकर मां को कहा कि मै मारूदेष नहीं जाउंगा और मैं अपना धर्म बदलकर आ गया हुं अब मुझे अपनी कोख मंे छुपा ले। अंत में धरती माता गुग्गा को अपनी गोद में छुपा लेती है।

More Reading

Post navigation

Leave a Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *